संत कवि ध्रनी दास जी के लिखल इहाँ दू गो पद दिहल गइल बा। पहिलका पद में जहवाँ भक्त अपना के सबले कम अँकले बाड़ें उहँवें भगवान के सब गुन से भरल आ महान कहत बाड़ें। दूसरा पद में कवि भगवान के गुरु मानत बाड़ें उनका कहला अनुसार जवना दिन गुरु के लागीं प्रेम आ आदर मन में उफपज जाला कुल्ही दुख बलाय भाग जाला।

पद-1

मैं निरगुनियाँ गुन नहिं जाना । एक ध्नी के हाथ बिकाना ।।
सो प्रभु पक्का मैं अति कच्चा । मैं झूठा मेरा साहब सच्चा ।।
मैं ओछा मेरा साहब पूरा । मैं कायर मेरा साहब सूरा ।।
मैं मूरख मेरा प्रभु ज्ञाता । मैं किरपिन मेरा साहब दाता ।।
ध्रती मन मानर इक ठाउफँ । सो प्रभु जीवो मैं मरिजाउफँ ।।

पद-2

जहिया भइल गुरु उपदेस, अंग-अंग के मिटल कलेस ।
सुनत सजग भयो जीव, जनु अगिनी परै घीव ।।

उर उपजल प्रभु प्रेम, छुटि के तब ब्रत नेम ।
जब घर भइल अँजोर, तब मानल मन मोर ।।
देखे के कहल न जाय, कहले न जग पतियाय ।
ध्रनी ध्नि तिन पाग, नेहि उपजल अनुराग ।।