किरन जीत गइल

– रमेश चन्द्र झा

जिनगी के एक लहर बीत गइल
हार गइल घोर अंधकार, किरन जीत गइल।
बदल गइल रंग, आज रंग असमान के,
निखर गइल रूप, रूप साँझ के, बिहान के,
सिहर गइल तार, हर सितार का बितान के,
आग भइल चिनगी से, साध जुगल जिनगी के
बिखर गइल हर सपना, अधरन से गीत गइल। जिनगी….

बदल गइल परिभाषा आज शूल-फूल के,
रूप आसमान चढ़ल बाग का बबूल के,
परती ना पहिचाने धरती का धूल के,
आर-पार आँगन के, महक उठल चन्दन के,
आपन परतीत गइल, सपना बन मीत गइल। जिनगी….

निखर उठी रूप नया-माटी का दे हके,
भाग नया जाग उठी-खेत के सरेह के,
धरती पर समदरसी दिया जरी ने हके,
आपन बनके थाती, लहकी मुरझल बाती,
जोत नया जाग रहल, परस नया प्रीत गइल। जिनगी….

रमेश चन्द्र झा

रमेश चन्द्र झा के जन्म 8 मई, 1928 ई. के बिहार के पूर्वी चम्पारण जिला के पफुलबरिया सुगौली में भइल रहे। 1942 के अगस्त क्रांति में उहाँ का बढ़-चढ़ के भाग ले ले रहीं। भोजपुरी, मैथिली आ हिन्दी तीनों भाषा के पत्रा-पत्रिकन में उनकर रचना प्रकाशित बा। उपन्यास, जीवनी, बाल-साहित्य, कविता आदि विविध् विध्न में उनकर लगभग पचास पुस्तक प्रकाशित बा। भोजपुरी में उनकर ऐतिहासिक उपन्यास ‘सूरमा सगुन विचारे ना’ अँजोर पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रकाशित भइल रहे।

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