दशहरा के नाम सुनते मन में आनन्द के सागर उमड़े लागे ला। एक ओर शक्ति के देवी दुर्गा के पूजा के मंत्रा गूंजत रहेला त दूसर ओर रामलीला, नाटक, संगीत के सांस्कृतिक वातावरण देखे के मिले ला। एह पर्व के धर्मिक महत्व त बड़ले बा बाकिर सांस्कृतिक महत्वो कम नइखे। नगर से लेके गाँव आ टोला-टपरी में सांस्कृतिक जागरण आ जाला।
जगह-जगह मेला आ उत्सव के ध्ूम रहेला। अपना देश में वेश-भूषा, बोली, भाषा, भोजन भा पर्व-त्याहार होखो कुल्हि किसिम-किसिम के रूप-रंग में पावल जाला। एह पर्व के विजयादशमी भी कहल जाला। ई प्रतीक ह असत्य पर सत्य के, अध्र्म पर ध्र्म के बुराई पर अच्छाई के विजय के।
धर्मिक कथा के आधर पर एह पर्व के दूगो वर्णन मिलेला। एक कथा के अनुसार दुर्गा माता शक्ति के अवतार के रूप में महिसासुर राक्षस के बध् एही दिन कइले रहलीं। दूसर कथा के अनुसार राक्षस राज रावण पर राम एही दिन विजय प्राप्त कइले रहलें। एही से एह पर्व के विजयादशमी कहल जाला। विजयादशमी के पहिले नौ दिन तक दुर्गा के नौ रूपन के पूजा होला। इ पर्व समूचे देश में कवनो ना कवनो रूप में मनावल जाला बाकिर बंगाल, बिहार, दिल्ली, हिमालच आ उत्तर प्रदेश में खूब ध्ूमधम से एकर आयोजन होला। कुल्लु ;हिमाचलद्ध के दशहरा नामी ह। एह पर्व में समाज के विभिन्न वर्ग आ सम्प्रदाय के लोग सांस्कृतिक कार्यक्रम के माध्यम से आपस में मिले-जुले ला आ आनन्द उठावे ला। चारो ओर सामाजिक कुरीतियन के विरोध्, सामाजिक चेतना के जागृत करे ला कार्यक्रम होला। एही से ई सुन्दर, सुहावन, मनभावन पर्व के सांस्कृतिक पर्व दशहरा कहल जाला। एगो लोकमत के अनुसार रामचन्द्र रावण के दस शीश के हरले रहस एह से एकरा दशहरा कहल जाला।
हिन्दी के पावन कुआर ;आसिनद्ध महिना के अँजोरिया में ई त्योहार मनावल जाला। नौ दिन तक दुर्गा पाठ होला तब हवन के बाद दशमी के दशहरा होला। हवन से पूरा वातावरण स्वच्छ हो जाला। कहल जाला कि दशमी के दसो दुआर खुलल रहेला। दशहरा का आवते लड़िकन के खुशी के ठेकाना ना रहे। सभे के नया-नया, रंग-बिरंगा कपड़ा पेन्हे के, मेला घूमे के, रामलीला आदि तमाशा देखे के अवसर मिलेला। जगह-जगह दुर्गाजी के मूर्ति बनेला, पंडाल सजेला। सतमी के दिन आँख खुलते जहवाँ-जहवाँ मूर्ति बनेला, पूजा होला उहवाँ भीड़ इकट्ठा होए लागे ला। नाच-गाना, नाटक, रामलीला, गीत-गवनई शुरू हो जाला। छोट-बड़ सभे पूजा करेला आ सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आनन्द उठावे ला।
दशहरा के अवसर पर मेला के अलगे रंग होला जेह में लोक रंग अपना उठान पर रहेला। मेहरारू लोगन के खासकर गाँव में रहे वालिन के इहे अवसर मिलेला घर से बहरी निकले के, गीत-गवनई के आनन्द उठावे के, एक दोसरा से मिले के। लड़िकन के झूला, सर्कस, जादू, यमपुरी नाटक में खूब मन लागे ला। मेला में चाट-पकउड़ी से लेके मिठाई तक मिलेला।
ई सांस्कृतिक पर्व के समापन रावण, कुम्भकरण, मेघनाद के लमहर-लमहर पुतल के दहन से होला। पुतला में पटाखा बन्हा ला। एकरा बनावे में हिन्दू-मुसलमान सभे कलाकार के कारीगरी रहेला। मैदान में पुतला खड़ा क दिहल जाला। राम बन के ध्नुष लेके एगो आदमी आवेला। रावण का नाभि में अग्निवाण मारेला। पुतला ध्ध्क उठेला। पटाखा के आवाज से कान अलसा जाला। पुतला जरि जाला। मानल जाला कि एकरा संगे अनाचार पर सदाचार के विजय हो ला। लड़िकन-बूढ़-जवान के भीड़ थपरी पीट के खुशी मनावे ला। ई
पर्व नेह-छोह, सद्भाव के पर्व ह जे सुख-शांति के संदेश लेके आवेला।